कुछ नहीं कहते न रोते हैं
दुख पिता की तरह होते हैं।
इस भरे तालाब-से बाँधे हुए मन में
धुँआते-से रहे ठहरे जागते तन में,
लिपट कर हम में बहुत चुपचाप सोते हैं....'अशेष'
नज्मो के नाम बात अनुभवो की होती है तो तर्क मे नही ढलती ....क्योकि तर्क तो तर्क को काटना जनता है..................अंतर्मन मे उतरना वो क्या जाने? कहानी बहुत लम्बी है..........क्योकि कहानियो मे खामोशिया छुपी होती है..... रिश्तो की खामोशिया...... धरकनो की खामोशिया....... दर्द और खुशियों की खामोशिया...... और ये खामोशिया जब लफ्जो का चोला पहनती है तो कोई कबीर......कोई ग़ालिब......कोई गुलजार.......का अक्श उभर आता है। ये blog उन्ही अक्शो के नाम..................आमीन.
शुक्रवार, अगस्त 20, 2010
शनिवार, अगस्त 07, 2010
पीर
क्यों जलाती व्यर्थ मुझको !
क्यों रुलाती व्यर्थ मुझको !
क्यों चलाती व्यर्थ मुझको !
री-अमर-मरू-प्यास,
मेरी मृतु ही साकार बन जा !
पीर मेरी,प्यास बन जा........!!
सोमवार, अगस्त 02, 2010
तलवार और ढाल
लुहार ने लोहे को गलाया और उसी लोहे से एक तलवार बनायीं व् एक ढाल. दोनों को एक योधा ने खरीद लिया. युद्ध के मैदान मे दोनों साथ ही जाती. योधा ने कई युद्ध लरे और एक दिन बीच मैदान मे जब उसने वार किया तो तलवार टूट गयी. उस टूटी तलवार ने ढाल से कहा- हम दोनों एक ही लोहे के बने है, एक ही साथ जन्मे है, लेकिन तुम अभी भी साबुत हों औए मैं जीवन कि आखिरी घरिया गिन रही हू. ऐसा क्यों है..?
ढाल ने कहा- तुममे और मुझमे एक बुनियादी फर्क है. तुम लोगो को मरने का काम करती हों और मैं लोगो को बचने का. मेरे साथ बचने वालो कि दुआए साथ होती है औए तुम्हारे साथ मरने वालो कि बददुआये.. बात पूरी होती इसके पहले ही तलवार कबार मे जा चुकी थी.
ढाल ने कहा- तुममे और मुझमे एक बुनियादी फर्क है. तुम लोगो को मरने का काम करती हों और मैं लोगो को बचने का. मेरे साथ बचने वालो कि दुआए साथ होती है औए तुम्हारे साथ मरने वालो कि बददुआये.. बात पूरी होती इसके पहले ही तलवार कबार मे जा चुकी थी.
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