रविवार, नवंबर 02, 2008

श्रीधर पाठक


1859 ई॰ आगरा के जोंधरी गाव मे जन्मे श्रीधर पाठक प्राकृतिक सौंदर्य, स्वदेश प्रेम तथा समाजसुधार की भावनाओ के कवि थे। इनकी रचनाये क्रमशः इस तरह हैं : मनोविनोद(भाग-1,2,3), धन विनय (1900), गुनवंत हेमंत(1900), वनाषटक( 1912),देहरादून(1915),गोखले गुनाषटक( 1915) इत्यादि । इनकी एक बाल-कविता प्रस्तुत हैं।
देल छे आए
बाबा आज देल छे आए,
चिज्जी पिज्जी कुछ ना लाए।
बाबा क्यों नहीं चिज्जी लाए,
इतनी देली छे क्यों आए।
कां है मेला बला खिलौना,
कलाकंद, लड्डू का दोना।
चूं चूं गाने वाली चिलिया,
चीं चीं करने वाली गुलिया।
चावल खाने वाली चुहिया,
चुनिया-मुनिया, मुन्ना भइया।
मेला मुन्ना, मेली गैया,
कां मेले मुन्ना की मैया।
बाबा तुम औ कां से आए,
आं आं चिज्जी क्यों ना लाए।
-श्रीधर पाठक( 1860 )

बुधवार, अक्तूबर 15, 2008

मैथिलीशरण गुप्त : हमारे राष्ट्रिय कवि


गुप्त जी का जन्म 1886 ईसवी, चिरगाव, झासी, उत्तरप्रदेश मे हुआ था। इनकी प्रथा रचना "भारत-भरती" 1912 ईसवी मे निकली और इस पुस्तक ने हिन्दी भाषियो मे अपनी जाती और देश के प्रति गर्व और गौरव की भावनाए जगाई। तभी से ये राष्ट्रकवि के रूप मे विख्यात है।

सखी वे मुझसे कह कर जाते.....


सखी वे मुझसे कह कर जाते ,
कह तो क्या वे मुझको अपनी पग बाधा ही पाते ?
मुझको बहुत उन्होंने माना
फिर भी क्या पूरा पहचाना ?
मैंने मुख्य उसी को जाना
जो वे मन मे लाते !
सखी वे मुझसे कह कर जाते !
स्वयं सुसज्जित कर के क्षण मे ,
प्रियतम को प्राणों के पण मे ,
हमी भेज देती है रण मे -
क्षात्र धर्म के नाते !
सखी वे मुझसे कह कर जाते !
हुआ न यह भी भाग्य अभागा ,
किस पर विफल गर्व अब जागा ?
जिसने अपनाया था, त्यागा ;
रहे स्मरण ही आते !
सखी वे मुझसे कह कर जाते !
नयन उन्हें है निष्ठुर कहते ,
पर इनसे आंसू जो बहते ,
सदय ह्रदय वे कैसे सहते ?
गए तरस ही खाते !
सखी वे मुझसे कह कर जाते !
जाये , सिद्धि पावे वे सुख से ,
दुखी न हो इस जन के दुःख से ,
उपालम्भ दू मैं किस मुख से ?
आज अधिक वे भाते !
सखी वे मुझसे कह कर जाते !
गए लौट भी वे आवेगे ,
कुछ अपूर्व, अनुपम लावेगे ,
रोते प्राण उन्हें पावेगे,
पर क्या गाते गाते ?
सखी वे मुझसे कह कर जाते !


गुरुवार, अगस्त 21, 2008

अयोध्या सिंह उपाध्याय


अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की बहुचर्चित—कृति ‘प्रिय प्रवास’ खड़ी बोली का पहला महाकाव्य है। साहित्य के तीन महत्त्वपूर्ण—भारतेंदु, द्विवेदी व छायावादी-युगों में फैले विस्तृत रचनाकाल के कारण वे हिंदी-कविता के विकास में नींव के पत्थर माने जाते हैं।


ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी
आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी ?
देव मेरे भाग्य में क्या है बदा,
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ?
या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,
चू पडूँगी या कमल के फूल में ?
बह गयी उस काल एक ऐसी हवा
वह समुन्दर ओर आई अनमनी
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी ।
लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
किंतु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर ।

सोमवार, अगस्त 11, 2008

रामनरेश त्रिपाठी

हिन्दी के पूर्व छायावाद युग के समर्थ कवियों में रामनरेश त्रिपाठी का नाम उल्लेखनीय है. इनका जन्म 1881 इसवी. में तथा मृत्यु 1962 इसवी में हुई. चार काव्य-कृतिया मुख्या रूप से उल्लेखनीय है........"मिलन" (1918), "पथिक" (1921), "मानसी" (1927), और "स्वप्न" (1929)
तिल्ली सिंह
पहने धोती कुरता झिल्ली
गमछे से लटकाये किल्ली
कस कर अपनी घोड़ी लिल्ली
तिल्ली सिंह जा पहुँचे दिल्ली
पहले मिले शेख जी चिल्ली
उनकी बहुत उड़ाई खिल्ली
चिल्ली ने पाली थी बिल्ली
बिल्ली थी दुमकटी चिबिल्ली
उसने धर दबोच दी बिल्ली
मरी देख कर अपनी बिल्ली
गुस्से से झुँझलाया चिल्ली
लेकर लाठी एक गठिल्ली
उसे मारने दौड़ा चिल्ली
लाठी देख डर गया तिल्ली
तुरत हो गयी धोती ढिल्ली
कस कर झटपट घोड़ी लिल्ली
तिल्ली सिंह ने छोड़ी दिल्ली
हल्ला हुआ गली दर गल्ली
तिल्ली सिंह ने जीती दिल्ली!

रविवार, अगस्त 03, 2008

महावीर प्रसाद द्विवेदी

जन्म: 1864 निधन: 1938


जहाँ हुए व्यास मुनि-प्रधान,
रामादि राजा अति कीर्तिमान।
जो थी जगत्पूजित धन्य-भूमि ,
वही हमारी यह आर्य्य- भूमि ।।
2
जहाँ हुए साधु हा महान्
थे लोग सारे धन-धर्म्मवान्।
जो थी जगत्पूजित धर्म्म-भूमि,
वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।
3
जहाँ सभी थे निज धर्म्म धारी,
स्वदेश का भी अभिमान भारी ।
जो थी जगत्पूजित पूज्य-भूमि,
वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।
4
हुए प्रजापाल नरेश नाना,
प्रजा जिन्होंने सुत-तुल्य जाना ।
जो थी जगत्पूजित सौख्य- भूमि ,
वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।
5
वीरांगना भारत-भामिली थीं,
वीरप्रसू भी कुल- कामिनी थीं ।
जो थ जगत्पूजित वीर- भूमि,
वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।
6
स्वदेश-सेवी जन लक्ष लक्ष,
हुए जहाँ हैं निज-कार्य्य दक्ष ।
जो थी जगत्पूजित कार्य्य-भूमि,
वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।
7
स्देश-कल्याण सुपुण्य जान,
जहाँ हुए यत्न सदा महान।
जो थी जगत्पूजित पुण्य भूमि,
वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।
8
न स्वार्थ का लेण जरा कहीं था,
देशार्थ का त्याग कहीं नहीं था।
जो थी जगत्पूजित श्रेष्ठ-भुमि,
वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।
9
कोई कभी धीर न छोड़ता था,
न मृत्यु से भी मुँह मोड़ता था।
जो थी जगत्पूजित धैर्य्य- भूमि,
वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।
10
स्वदेश के शत्रु स्वशत्रु माने,
जहाँ सभी ने शर-चाप ताने ।
जो थी जगत्पूजित शौर्य्य-भूमि,
वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।
11
अनेक थे वर्णे तथापि सारे
थे एकताबद्ध जहाँ हमारे
जो थी जगत्पूजित ऐक्य-भूमि,
वही हमारी यह आर्य भूमि ।।
12
थी मातृभूमि-व्रत-भक्ति भारी,
जहां हुए शुर यशोधिकारी ।
जो थी जगत्पूजित कीर्ति-भूमि,
वही हमारी यह आर्यभूमि ।।
13
दिव्यास्त्र विद्या बल, दिव्य यान,
छाया जहाँ था अति दिव्य ज्ञान ।
जो थी जगत्पूजित दिव्यभूमि,
वही हमारी यह आर्यभूमि ।।
14
नये नये देश जहाँ अनेक,
जीत गये थे नित एक एक ।
जो थी जगत्पूजित भाग्यभूमि,
वही हमारी यह आर्यभूमि ।।
15
विचार एसे जब चित्त आते,
विषाद पैदा करते, सताते ।
न क्या कभी देव दया करेंगे ?
न क्या हमारे दिन भी फिरेंगे ?
(अप्रैल, 1906 की सरस्वती में प्रकाशित )

शनिवार, अगस्त 02, 2008

भारतेंदु हरिश्चंद्र

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ।
अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ।
उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय
निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय ।
निज भाषा उन्नति बिना, कबहुं न ह्यैहैं सोय
लाख उपाय अनेक यों भले करे किन कोय ।
इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग
तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग ।
और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात ।
तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय
यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय ।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार ।
भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात ।
सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय ।

मंगलवार, जुलाई 29, 2008

भारतेंदु हरिश्चंद्र


आधुनिक हिंदी साहित्य में भारतेंदु जी का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। भारतेंदु बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी थे। कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, निबंध आदि सभी क्षेत्रों में उनकी देन अपूर्व है। भारतेंदु जी हिंदी में नव जागरण का संदेश लेकर अवतरित हुए। उन्होंने हिंदी के सर्वांगीण विकास में महत्वपूर्ण कार्य किया। भाव, भाषा और शैली में नवीनता तथा मौलिकता का समावेश करके उन्हें आधुनिक काल के अनुरूप बनाया। आधुनिक हिंदी के वे जन्मदाता माने जाते हैं। हिंदी के नाटकों का सूत्रपात भी उन्हीं के द्वारा हुआ। भारतेंदु जी अपने समय के साहित्यिक नेता थे। उनसे कितने ही प्रतिभाशाली लेखकों को जन्म मिला। मातृ-भाषा की सेवा में उन्होंने अपना जीवन ही नहीं संपूर्ण धन भी अर्पित कर दिया। हिंदी भाषा की उन्नति उनका मूलमंत्र था - निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल।।
अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण भारतेंदु हिंदी साहित्याकाश के एक दैदिप्यमान नक्षत्र बन गए और उनका युग भारतेंदु युग के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
इनकी रचनाओ का लुत्फ़ एक अलग अंदाज मे उठाया जा सकता है..........
विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम् ।
स्टारार्थी लभते स्टारम् मोक्षार्थी लभते गतिं ।।
एक कालं द्विकालं च त्रिकालं नित्यमुत्पठेत।
भव पाश विनिर्मुक्त: अंग्रेज लोकं संगच्छति ।।
अर्थात इससे विद्यार्थी को विद्या , धन चाहने वाले को धन , स्टार-खिताब-पदवी चाहने वाले को स्टार और मोक्ष की कामना करने वाले को परमगति की प्राप्ति होती है । जो प्राणी रोजाना ,नियम से , तीनो समय इसका- (अंग्रेज - स्तोत्र का) पाठ करता है वह अंग्रेज लोक को गमन करने का पुण्य लाभ अर्जित करने का अधिकारी होता है ।

रविवार, जुलाई 20, 2008

आमिर खुसरो


काहे को ब्याहे बिदेस, अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस
भैया को दियो बाबुल महले दो-महले
हमको दियो परदेस
अरे लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

हम तो बाबुल तोरे खूँटे की गैयाँ
जित हाँके हँक जैहें,
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

हम तो बाबुल तोरे बेले की कलियाँ
घर-घर माँगे हैं जैहें,
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

कोठे तले से पलकिया जो निकली
बीरन में छाए पछाड़,
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

हम तो हैं बाबुल तोरे पिंजरे की चिड़ियाँ
भोर भये उड़ जैहें
अरे, बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

तारों भरी मैनें गुड़िया जो छोडी़
छूटा सहेली का साथ
अरे, बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

डोली का पर्दा उठा के जो देखा
आया पिया का देस
अरे, बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

सोमवार, जुलाई 07, 2008

खुसरो

१।गोश्त क्यों न खाया?
डोम क्यों न गाया?
उत्तर—गला न था

२.जूता पहना नही
समोसा खाया नहीं
उत्तर — तला न था

३।अनार क्यों न चखा?
वज़ीर क्यों न रखा?
उत्तर— दाना न था( अनार का दाना और दाना=बुद्धिमान)

४।सौदागर चे मे बायद? (सौदागर को क्या चाहिए )
बूचे(बहरे) को क्या चाहिए?
उत्तर (दो कान भी, दुकान भी)

५।तिश्नारा चे मे बायद? (प्यासे को क्या चाहिए)
मिलाप को क्या चाहिए
उत्तर—चाह (कुआँ भी और प्यार भी)

६।शिकार ब चे मे बायद करद? ( शिकार किस चीज़ से करना चाहिए)
क़ुव्वते मग़्ज़ को क्या चाहिए? (दिमाग़ी ताक़त को बढ़ाने के लिए क्या चाहिए)
उत्तर— बा —दाम (जाल के साथ) और बादाम

मंगलवार, जून 24, 2008

आमिर खुसरो


१.खा गया पी गया
दे गया बुत्ता
ऐ सखि साजन?
ना सखि कुत्ता!


२।लिपट लिपट के वा के सोई
छाती से छाती लगा के रोई
दांत से दांत बजे तो ताड़ा
ऐ सखि साजन?
ना सखि जाड़ा!


३।रात समय वह मेरे आवे
भोर भये वह घर उठि जावे
यह अचरज है सबसे न्यारा
ऐ सखि साजन?
ना सखि तारा!


४.नंगे पाँव फिरन नहिं देत
पाव से मिट्टी लगन नहिं देत
पाव का चूमा लेत निपूता
ऐ सखि साजन?
ना सखि जूता!


५।ऊंची अटारी पलंग बिछायो
मैं सोई मेरे सिर पर आयो
खुल गई अंखियां भयी आनंद
ऐ सखि साजन?
ना सखि चांद!

६।जब माँगू तब जल भरि लावे

मेरे मन की तपन बुझावे

मन का भारी तन का छोटा

ऐ सखि साजन?
ना सखि लोटा!




७।वो आवै तो शादी होय
उस बिन दूजा और न कोय
मीठे लागें वा के बोल
ऐ सखि साजन?
ना सखि ढोल!



८।बेर-बेर सोवतहिं जगावे
ना जागूँ तो काटे खावे
व्याकुल हुई मैं हक्की बक्की
ऐ सखि साजन?
ना सखि मक्खी!



९.अति सुरंग है रंग रंगीलो
है गुणवंत बहुत चटकीलो
राम भजन बिन कभी न सोता
ऐ सखि साजन?
ना सखि तोता!



१०।आप हिले और मोहे हिलाए
वा का हिलना मोए मन भाए
हिल हिल के वो हुआ निसंखा
ऐ सखि साजन?
ना सखि पंखा!



११।अर्ध निशा वह आया भौन
सुंदरता बरने कवि कौन
निरखत ही मन भयो अनंदऐ
सखि साजन?
ना सखि चंद!



१२।शोभा सदा बढ़ावन हारा
aankhin से छिन होत न न्यारा
आठ पहर मेरो मनोरंजन
a सखि साजन?
ना सखि अंजन!



१३।जीवन सब जग जासों कहे
बिनु नेक न धीरज रहे

हरे छिनक में हिय की पीर
a सखि साजन?
ना सखि नीर!



१४।बिन आये सबहीं सुख भूले
aaye ते अँग-अँग सब फुले
siri भई लगावत छाती
a सखि साजन?
ना सखि पाती!



१५।सगरी रैन छतियां पर राख
रूप रंग सब वा का चाख
भोर भई जब दिया उतार
ऐ सखी साजन?
ना सखि हार!



१६।पड़ी थी मैं अचानक चढ़ आयो
जब उतरयो तो पसीनो आयो
सहम गई नहीं सकी पुकार
ऐ सखि साजन?
ना सखि बुखार!



१७।सेज पड़ी मोरे आंखों आए
डाल सेज मोहे मजा दिखाए
किस से कहूं अब मजा में अपना
ऐ सखि साजन?
ना सखि सपना!



१८।बखत बखत मोए वा की आस
रात दिना ऊ रहत मो पास
मेरे मन को सब करत है काम
ऐ सखि साजन?
ना सखि राम!



१९.सरब सलोना सब गुन नीकावा
बिन सब जग लागे फीकावा
के सर पर होवे कोन एल
a सखी ‘साजन’
ना सखि! ,लोन(नमक)



२०.सगरी रैन मिही संग जागा
भोर भई तब बिछुड़न लागा
उसके बिछुड़त फाटे हिया’
ए सखि ‘साजन’
ना,सखि! दिया(दीपक)



२१.वह आवे तब शादी होय,
उस बिन दूजा और न कोय
मीठे लागे वाके बोल
a सखी साजन
ना सखि ! ‘ढोल’

शुक्रवार, मई 02, 2008



और अब चुलबुल की बातें
रश्मि
रश्मि पवन एक दूसरे के हमसफ़र हैं और चुलबुल उनकी बेटी। एक समय था, जब हम और पवन साथ रहते थे। तब रश्मि और पवन प्रेम की आखिरी गली पार कर रहे थे। वैलेंटाइन डे और रश्मि के बर्थडे में पवन एक बड़ी पार्टी ऑर्गनाइज़ करता था। बाद में हालात ने हमें शहर दर शहर भटकाया, लेकिन पटना में पवन की डिमांड बढ़ती रही। वह आज राष्‍ट्रीय स्‍तर का कार्टूनिस्‍ट है। हिंदुस्‍तान अख़बार के लिए कार्टून बनाता है। रश्मि पटना विश्‍वविद्यालय की लाइब्रेरी में वक्‍त गुज़ारती है। चुलबुल इन दोनों के प्रेम की एक मज़बूत कड़ी है।
अविनाश
बेटियों का ब्लॉग। यानि बेटियों की बातें। अपनी भी एक बिटिया है। नाम चुलबुल। उम्र 3 साल। वह क्या आयी, जिन्दगी ही चुलबुला गयी है। 'माँ सुनो एक बात... माँ देखो तो सही... माँ कुछ आईडिया लगाओ... पापा को तो कुछ भी समझ नही आता है... देखो पापा सब के सामने प्यारी ले रहे हैं...' कितनी ही ऐसी आवाजें दिन-रात हमारे घर मे गूंजा करती है। चुलबुल जब पैदा हुई, तो उसके एक-एक दिन की हरकतें हमें वैसे ही अचरज मे डाला करती थी, जैसे आज 'अविनाश-मुक्‍ता' को। बाबूजी उसकी दिन-रात बनती-बिगाड़ती हरकतों को देख अक्सर मुझसे कहते... "रश्मि लिखा करो तुम... इसकी एक-एक बातो को..." तब मैं मुस्करा दिया करती थी। और मुस्कुराते-मुस्कुराते ही तीन साल निकल गये। कभी-कभी अफ़सोस भी होता, लेकिन इस ब्लॉग ने मेरे अंदर की डायरी के पन्ने ही खोल दिये मानो।आज चुलबुल स्कूल जाने लगी है। अब तो उसके पास ढेर सी बातें हुआ करती हैं। "माँ आज नंदनी नही आयी... अंसिका को मैम दाति..." और भी बहुत सी बातें। कार्टून की लाइनें खीचने मे माहिर है। कल्पनाएं भी उतनी ही अद्-भुत। "इसकी मम्मी छोर कर चली गई है इसलिए रो रहा है..." तो कभी ख़ुद को आइसक्रीम खाने को न मिले तो कार्टून की शक्ल मे बना कर बोलेगी, "देखो गन्दा देखो ठंड मे आइसक्रीम खा रहा है।" कार्टून सच मे चुलबुल बहुत बढिया बनाती है। अगली बार उसके बनाये कार्टून के साथ।
Posted by avinash at Wednesday, February 27, 2008 0 comments
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शनिवार, अप्रैल 26, 2008

याद है मुझे...
तुमने कहा था.........
इक पुरखार पौधा बनुगा
जहा तुम मुझे हुस्न दोगी
...........तुम्हे मैं पनाह.

रविवार, अप्रैल 06, 2008

अलग


अलग है

ऐसे

क्यो हम

जैसे............

रात और

दिन..........

शुक्रवार, अप्रैल 04, 2008

शाम


बेमहर रात
और बदमिजाज..........
झेल लेने के बाद
शाम तोहफा है
आस्मा का अता किया
शाम को संभालो,
सजाओ,

इसको सवारों,
मसरफ मे अपने लाओ
इससे पहले
के रात इसे अपने जहर से
मार डाले.........
उठो .


आकाश


तुम

आकाश होना चाहते हो
.................हो जाओ
मैं
धरती ही बनू
.........ये मेरी आरजू
फर्क सिर्फ़ इतना है.........
तुम
छाए हो लोगो पर
मैं
बिछी हू लोगो के लिए..............आमीन.

शनिवार, मार्च 29, 2008

एक सुखा पत्ता


हाँ,
हिला तो था कुछ.......
आई तो थी आवाज
खङकने की
तब......
जब मैं गुजर रही थी
तेरी यादो के जंगल से।
ठुंठ kharre hai वहा
हरियाली का नामो-निशा नही
केवल वही-
अकेला था वहा.........

तेरा एहसास लिए
एक सुखा पत्ता
बस..........एक सुखा पत्ता.

बुधवार, मार्च 26, 2008

तुम


जिसमे नींद भर सो न सकी
बरखा की वो रात हो तुम.
कहते-कहते भी कह न सकी
वो अधूरी बात हो तुम.
हाथो को बढ़ा कर छूना जो चाहा
तो दूर हुए एहसास सा तुम.
चांदनी रातो मे तनहा से हम
और गुले-गुलजार हो तुम.
बहुत चाहा के देख लू नजर भर के
लेकिन पलको पे बैठे मेहमा हो तुम.
पन्ने के इक छोर पे लिखी
अपनी कहानी का विराम हो तुम.
कह सको तो कह दो इक बार
मेरे बस मेरे मेहरबा हो तुम.

बुधवार, मार्च 19, 2008

चूडियाँ


इतनी उदास कब थी कलाई मे चूडियाँ ,
ढीली परी है किसकी जुदाई मे चूडियाँ
इस साल भेजे है तोहफे नए -नए
कंगन जुलाई मे तो दिसम्बर मे चूडियाँ "

सोमवार, मार्च 17, 2008

ख्याल


बूंद थी
वो जाने क्या थी
मिटटी मे गुम हो गए थी
पाव के नीचे जरा कुछ गीलापन तो है अभी
फिर भी
फलक से रिस रही इस धूप मे
आवारगी आसा नही
ये हौसले की बात है
लेकिन
बदन की बस्तियों मे फासले की रात है
देखो
जमी महवर पे अपने मस्त है
हां
बारहा मह्सूस होता है
के दुनिया धुल मे लिपटी हुई इक बूंद है
बस................इक ...................बूंद.

शुक्रवार, मार्च 14, 2008

जाने दो


आँखे मीचे
रंग भरे आकाश के नीचे
दर्द के तारो मे लिपटी आवाज के पीछे
इक लफ्ज लटकता होगा शायद
जाने दो
शियानो मे
इस जिस्म के खाली खानों मे
या नींद से जगी रातो के बियाबानो मे
इक ख्वाब भटकता होगा शायद
जाने दो
बेमानी सा
कुछ आंखो के खारे पानी सा
इक नाज्म्नुमा, इक गीत गजल कहानी सा
ये रब्त खटकता होगा शायद
जाने दो
इन बेकार खयालो को
अब तुम क्यो आख़िर नोटिस लो
जाने दो.......जाने दो..................
rashmi

स्त्री


घृणा से
टूटे हुए लोगो
दर्पण और अनास्था से
असंतुष्ट महिलाओ को
वक्तव्य न दो
मोहित करती है वह तस्वीर
जो बसी है रग-रग
डरती हू
कि छु कर उसे मैली न कर दू
हरे पत्तो से घिरे गुलाब की तरह
खूबसूरत हो तुम
पर इसकी उम्मीद नही
कि तुम्हे देख सकू
इसलिए
उद्धत भाव से
अपनी बुद्धि मंद करना चाहती हूं।
बचपन में परायी कहा
फिर सुहागन
अब विधवा
ओह किसी ने पुकारा नही नाम लेकर
मेरे जन्‍म पर खूब रोयी मां
मैं नवजात
नहीं समझ पायी उन आंसुओं का अर्थ
क्‍या वाकई मां
पुत्र की चाहत में रोई थी।
मेरी तकदीर पर वाहवाही लूटते हैं लोग
पर अपने घ्रर में ही
घूमती परछाई बनती जा रही मैं
मैं ढूंढ रही पुरानी खुशी
पर मिलती हैं तोडती लहरें
खुद से सुगंध भी आती हैं एक
पर उस फूल का नाम
भ्रम ही रहा मेरे लिए।
शादी का लाल जोडा पहनाया था मां ने
उसकी रंगत ठीक ही थी
पर उसमें टंके सितारे उसकी रंगत
ढंक रहे थे
मुझे दिखी नहीं वहां मेरी खुशियां
मुझ पर पहाड सा टूट पडा एक शब्‍द
शादी
बागों में सारे फूल खिल उठे
पर मेरी चुनरी की लाली फीकी पडती गयी
बक्‍से में बंद बंद।
-आभा

मंगलवार, मार्च 04, 2008

शाकिर परवीन

वो तो ख़ुशबू है / परवीन शाकिर
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
वो तो ख़ुशबू है

हवाओं में बिखर जाएगा
मसला फूल का है फूल किधर जायेगा
हम तो समझे थे के ज़ख़्म है भर जायेगा
क्या ख़बर थी के रग-ए-जाँ में उतर जायेगा
वो हवाओं की तरह ख़ानाबजाँ फिरता है
एक झोंका है जो आयेगा गुज़र जायेगा
वो जब आयेगा तो फिर उसकी रफ़ाक़त के लिये
मौसम-ए-गुल मेरे आँगन में ठहर जायेगा
आख़िर वो भी कहीं रेत पे बैठी होगी
तेरा ये प्यार भी दरिया है उतर जायेगा