गुरुवार, अगस्त 21, 2008

अयोध्या सिंह उपाध्याय


अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की बहुचर्चित—कृति ‘प्रिय प्रवास’ खड़ी बोली का पहला महाकाव्य है। साहित्य के तीन महत्त्वपूर्ण—भारतेंदु, द्विवेदी व छायावादी-युगों में फैले विस्तृत रचनाकाल के कारण वे हिंदी-कविता के विकास में नींव के पत्थर माने जाते हैं।


ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी
आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी ?
देव मेरे भाग्य में क्या है बदा,
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ?
या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,
चू पडूँगी या कमल के फूल में ?
बह गयी उस काल एक ऐसी हवा
वह समुन्दर ओर आई अनमनी
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी ।
लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
किंतु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर ।

3 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

आभार इस प्रस्तुति के लिए.

तसलीम अहमद ने कहा…

bachpan me padhi thi yah kavita, aaj padhi to aur achhi lagi.
prastuti ke liye aabhar.

Ek ziddi dhun ने कहा…

दरजा पांच या चार में कोर्स में थी यह कविता, तब से ही रटी पड़ी है। यहां देखकर अच्छा लगा