शुक्रवार, मार्च 14, 2008

स्त्री


घृणा से
टूटे हुए लोगो
दर्पण और अनास्था से
असंतुष्ट महिलाओ को
वक्तव्य न दो
मोहित करती है वह तस्वीर
जो बसी है रग-रग
डरती हू
कि छु कर उसे मैली न कर दू
हरे पत्तो से घिरे गुलाब की तरह
खूबसूरत हो तुम
पर इसकी उम्मीद नही
कि तुम्हे देख सकू
इसलिए
उद्धत भाव से
अपनी बुद्धि मंद करना चाहती हूं।
बचपन में परायी कहा
फिर सुहागन
अब विधवा
ओह किसी ने पुकारा नही नाम लेकर
मेरे जन्‍म पर खूब रोयी मां
मैं नवजात
नहीं समझ पायी उन आंसुओं का अर्थ
क्‍या वाकई मां
पुत्र की चाहत में रोई थी।
मेरी तकदीर पर वाहवाही लूटते हैं लोग
पर अपने घ्रर में ही
घूमती परछाई बनती जा रही मैं
मैं ढूंढ रही पुरानी खुशी
पर मिलती हैं तोडती लहरें
खुद से सुगंध भी आती हैं एक
पर उस फूल का नाम
भ्रम ही रहा मेरे लिए।
शादी का लाल जोडा पहनाया था मां ने
उसकी रंगत ठीक ही थी
पर उसमें टंके सितारे उसकी रंगत
ढंक रहे थे
मुझे दिखी नहीं वहां मेरी खुशियां
मुझ पर पहाड सा टूट पडा एक शब्‍द
शादी
बागों में सारे फूल खिल उठे
पर मेरी चुनरी की लाली फीकी पडती गयी
बक्‍से में बंद बंद।
-आभा

3 टिप्‍पणियां:

Ek ziddi dhun ने कहा…

महादेवी के स्त्री विमर्श से संबंधित लेख `श्रृंखला की कडियाँ` नाम से संकलित हैं...एक जगह वो कुछ इस तरह कहती हैं कि लड़कियों को रोजगार के नाम पर शादी दी जाती है.....

manjula ने कहा…

"बागों में सारे फूल खिल उठे
पर मेरी चुनरी की लाली फीकी पडती गयी
बक्‍से में बंद बंद।"

आपने तो दिल का एक बंद कोना खोल दिया रश्मि जी. ये कविता पढ़ते हुए कम्‍बक्ष्‍त आंखे कब धोखा देने लगी पता ही नहीं लगा

rashmi ने कहा…
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